मन में गंदे
दोस्तों हमारे मन में गंदे विचार क्यों आते हैं. हम नहीं चाहते पर फिर भी हमारे मन में गंदे विचार आते रहते हैं. लेकिन क्यों मन ही हमारा सबसे बड़ा दोस्त है. और मन ही हमारा सबसे बड़ा शत्रु है. जब हम अपने मन के हिसाब से चलते हैं. तो मन हमें भटका देता है. और जब हम मन को संतुलित कर लेते हैं. तो हम अपनी जिंदगी में सब कुछ पा लेते हैं. हम हमारे मन में आने वाले गंदे विचारों को रोकने की कोशीश करते हैं. पर जितना हम रोकते हैं.
उतने ही ये विचार हमारे
अंदर प्रवेश करते जाते है. आप जीस चीज़ से
जितना दूर भागोगे उतना ही वो चीज़ आपको अपने पास लायगी. इसीलिए
उस चीज़ से भागो मत. उस पर संतुलन कायम करो.
एक बार एक युवक गौतम बुद्ध के पास आया. और गौतम से बोला की हे बुद्ध मेरे मन में इतने गंदे विचार क्यों आते
हैं. मैं नहीं चाहता कि मेरे मन में गंदे
विचार आए. पर मेरे मन में हमेशा काम वासना
के विचार चलते रहते है. और मैं इनके बारे
में सोच सोचकर बौद्ध परेशान हूँ.
मेरी ऊर्जा और समय ये
सब सोचने में ही नष्ट हो जाता है. और इन
सब के विचारों की वजह से मैं कभी भी साथ नहीं रह पाता. और मैं हमेशा ही स्त्रियों को देखकर मोहित हो
जाता हूँ. अपने आप को रोक ही नहीं पाता. बौद्ध मुस्कुराये और उन्होंने उस युवक से पूछा क्या
तुम्हें पता है. ये काम वासना होती क्या
है. फिर लड़के ने उत्तर दिया और कहा बुद्ध मैं
ये तो नहीं जानता. कि काम वासना होती क्या है. पर हाँ, ये जो भी है बौद्ध बुरी चीज़ है.
फिर बुद्ध ने उस युवक
से कहा. कि सबसे पहले तो तुम्हें यह समझना
है. कि प्राकृतिक रूप से जो भी चीजें
हमारे अंदर है. वो बुरी नहीं है. हमारे जीवन में उसकी कुछ ना कुछ जरूरत है. वासना कोई बुरी बात नहीं है. ये तो हमारे मन की एक भावना है. जो हमें किसी ना किसी चीज़ की कमी का अहसास
करवाती है. और फिर हम उस चीज़ को पाने के
लिए उस चीज़ की तरफ आकर्षित हो जाते हैं. जैसे अगर तुम्हारे पास धन की कमी है तो तुम में
धन पाने की वासना उत्पन्न हो जाएगी.
तो वासना कुछ और नहीं
बस एक प्रकार की कमी है. जो कि एक प्रकार
की जरूरत का एहसास है. और जब ये जरूरत
शारीरिक हो तो. हम इसे काम वासना कह देते
हैं. युवक ने गौतम बुद्ध को कहा कि बुद्ध
मुझे काम वासना का मतलब तो समझ में आ गया पर आप मुझे ये बताइए. की ये आती कहाँ से है. कैसे आती है. ये गौतम बुद्ध ने कहा कि काम वासना कहीं से आती
नहीं है. ये तो हमारे अंदर ही होती है. और इसका होना तो जरूरी भी है. तभी तो मानव जाति का विस्तार होगा.
युवक ने कहा जब ये
हमारे अंदर ही है. और जरूरी भी है. तो फिर लोग इसे गलत क्यों बोलते है. बुद्ध ने कहा. कि यही तो समस्या है, लोगों ने काम वासना को गलत तरीके से सोच लिया है.
इसे छिपाने की दबाने की कोशीश करते हैं. काम वासना गलत नहीं है. बल्कि काम वासना का गलत तरीके से प्रयोग करना
गलत बात है. लोग जिससे प्रेम करते हैं. बस उसी के लिए जीने लग जाते है. उसे पाना ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं. और उसी के बारे में हमेशा सोचते रहते हैं.
और ये सब गलत है. बुदनी युवक से कहा क्या तुम्हें पता है. जानवरों में भी काम वासना होती है. युवक ने उत्तर दिया हाँ. बुद्ध जानवरों में भी काम वासना होती है. क्योंकि जानवर भी तो आखिर अपनी पीढ़ी को आगे
बढ़ाएंगे बुद्ध ने कहा. तो फिर हम जानवरों
की काम वासना को गलत क्यों नहीं कहते. युवक ने कहा मुझे नहीं पता महात्मा आप ही मुझे
बताइए. गौतम बुद्ध ने कहा कि जानवर अपनी
काम वासना का प्रयोग आनंद प्राप्ति के लिए नहीं करते.
वो तो सिर्फ संतान
उत्पन्न करने के लिए काम वासना का उपयोग करते हैं. जानवरों को प्रकृति ने इतनी समझ नहीं दी. कि वो काम वासना को अपने सुख का आधार बना सके. जबकि मनुष्य अपनी समझ के बल बूते पर प्रकृति में
पाए जाने वाली. पड़ते एक वस्तु को अपने सुख
के लिए प्रयोग करता है. हम इंसानों ने ही
काम वासना को अपने सुख का साधन बना लिया है. जबकि प्रकृति ने तो हमें अपने वंश को आगे बढ़ाने
के लिए दिया था. लेकिन इंसानों ने इसे
अपने जीवन का
परम लक्ष्य बना रखा है.
और इस तरह से काम वासना का भी बे लगाम हो
जाना गलत है. युवक ने बुद्ध से पूछा
महात्मा जी ये काम वासना हम पर हावी क्यों होती है. क्यों ये बे लगाम हो जाती है. तब गौतम बुद्ध ने कहा कि सुनो अब जो मैं तुम्हें
बताऊँगा. उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनना, काम वासना का सारा खेल तुम्हें समझ आजायेगा. तुम्हें
तुम्हारे सारे सवालों का जवाब मिल जाएगा. बस तुम्हें ध्यान से सुनकर समझना है. फिर गौतम बुद्ध युवक को बताना शुरू करते हैं.
एक बार की बात है. एक आश्रम में गुरु और उनके शिष्य रहा करते थे. जिससे
रोजाना आश्रम के बाहर स्थित गांव में भिक्षा लेने के लिए जाते थे. उस आश्रम का एक शिष्य जिस गांव में भिक्षा लेने
जाता था. उस रास्ते में एक नदी पड़ती थी. वो शिष्य रोज़ उसी रास्ते से भिक्षा लेने जाता था.
एक दिन उससे ने देखा कि एक लड़का पेड़ के
पीछे छिपा है. वो शिष्य उस लड़के के पास
गया और उससे जाकर बोला. भाई तुम इस पेड़ के
पीछे छिपकर क्या देख रहे हो. लड़के ने कहा.
अरे तुझे नहीं दिख रहा
है क्या. कि मैं क्या देख रहा हूँ. तब शिष्य ने नदी की तरफ देखा. तो वहाँ पर कुछ लड़कियां पानी भर रही थी. वो लड़कियां चौदह पंद्रह साल की होगी. तब शिष्य ने उस लड़के से कहा. अरे भाई वहा पर तो लड़कियां पानी भर रही है. इसमें छिप कर देखने वाली क्या बात है. तब वो लड़का शिष्य की तरफ देखकर उससे कहता है. अरे पागल तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा है क्या. कैसे
ये परियाँ नदी से पानी निकाल रही है. ज़रा
उनकी अदाओं को तो देखो उनके कोमल शरीर को देखो.
उनकी पतली कमर मटके को
उठाते समय बलखाती है. और उनके बाल उनकी
कमर पर कैसे लहरा रहे हैं. मानो सुंदरता
बिखरी पड़ी हो. शिष्य ने नदी की तरफ देखा. और इस बार वो शिष्य देखता ही चला गया. अभी तक तो उसे कुछ भी नजर नहीं आ रहा था. और वो बिलकुल निर्भय था. उसे किसी भी बात का कोई डर नहीं था. लेकिन अब वह छिपने लगा. और उन लड़कियों को देखने लगा. जैसे उसने कोई अपराध कर दिया हो. और जब वह छिपकर उन लड़कियों को देख रहा था.
तभी वो अचानक अंदर से
कांप गया. और
उसने कहा की ये मैं क्या कर रहा हूँ. मैं जो कर रहा हूँ. वो सही नहीं है. मुझे यहाँ से चले जाना चाहिए. और फिर वो जल्दी से वहाँ से चला गया. वो आश्रम पहुँच जाता है. आश्रम जाकर वो अपने कार्यों में लग गया. लेकिन जो अभी वो देख कर आया था.
वहीं उसकी आँखों के सामने
बार बार आ रहा था. उसके मन में वही दृश्य चल रहा था. उसका मन वही सब कुछ देखने के लिए
ललायित हो रहा था. उसका किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था.
सुबह होते ही वो रोज़
जल्दी ही भिक्षा के लिए आश्रम से निकल जाता. और उस नदी के पास वाले वृक्ष के
पास जाता. जहाँ पर
वो लड़का पहले से मौजूद रहता था. उसके साथ मिलकर लड़कियों को छुप छुपकर देखता था.
अब वो शिष्य रोज़ ही ऐसा करने लग गया. यह उसके रोज़ का काम हो गया. अब उस शिष्य
का किसी भी काम में मन नहीं लगता था. वो हमेशा ही किसी ना किसी प्रकार के विचार में
उलझा रहता. वो आश्रम के कार्यों को भी ठीक
ढंग से नहीं कर पा रहा था. ना वो ठीक से
सो पाता था. ना वो ठीक से खाना खा पाता था. उसका मन बेचैन सा रहता था. उसका मन बार बार उन लड़कियों के सौंदर्य को देखने
के लिए लालायित हो उठता था. जगद्गुरु
भिक्षा देते तब भी उस शिष्य का मन कहीं और विचारों में खोया रहता था.
गुरु ने अपने शिष्य की
इन हरकतों को भांप लिया था. तब एक दिन गुरु
ने शिष्य को अपने पास बुलाया. और कहा कि
आज से मैं भी तुम्हारे साथ भिक्षा मांगने चलूँगा. तुम और मैं साथ साथ भिक्षा मांगने चलेंगे. तभी शिष्य ने गुरु को मना करते हुए बोला. नहीं गुरुदेव आप परेशान क्यों हो रहे हो. मैं अकेला ही ठीक से भिक्षा मांग सकता हूँ. गुरु ने शिष्य से कहा की ठीक है. तुम अकेले ही भिक्षा मांगने जाओ. जिसे तुरंत वहाँ से भिक्षा मांगने के लिए निकल
गया. शिष्य को जाने के बाद
गुरु भी आश्रम से निकल
गए. और शिष्य का पीछा करने लगे कि वो कहा
जाता है. किस्से मिलता है. ये सब देखने के लिए उसके पीछे पीछे चलने लगे. थोड़ी दूर जाने के बाद गुरु ने देखा. कि उनका शिष्य एक लड़के के साथ एक पेड़ के पीछे अपराधी की तरह
छिपा हुआ है. और छिपकर कुछ देख रहा था. गुरु भी अपने शिष्य के पीछे जाकर खड़े हो गए. कि आखिर उनका शिष्य ऐसा क्या देख रहा है. जिसे देखने के लिए वो पेड़ के पीछे अपराधियों की
तरह छिपा पड़ा है. गुरु ने देखा
कि उनका शिष्य पेड़ के
पीछे छुपकर लड़कियों को देख रहा था. जो कि
नदी से पानी भर रही थी. तभी गुरु ने शिष्य
को कहा. कि इससे क्या तुम इन लड़कियों से
भी भिक्षा लोगे. अपने गुरु की आवाज सुनकर
वो शिष्य घबरा गया. और उसके पसीने छूटने
लगे. वो थर थर कांपने लगा. जैसे किसी चोर को चोरी करते समय रंगे हाथों पकड़
लिया हो. शिष्य की हालत खराब हो गयी. वो कुछ भी नहीं बोल पा रहा था. दूसरा लड़का जो शिष्य के साथ था. वो वहाँ से भाग गया
जिससे घबराया हुआ था. उसके मुँह से कुछ टूटे फूटे शब्द ही बाहर निकल
रहे थे. वो अपने गुरु से नजरें भी नहीं
मिला पा रहा था. गुरु ने शिष्य की तरफ
देखा और कहा कि मेरा शिष्य तो निर्भय था. उसे
तो किसी भी चीज़ का डर नहीं था. लेकिन यह
क्या तुम तो डर के मारे कांप रहे हो. शिष्य ने उस गुरु
से कहा कि मुझे माफ़ कर दो गुरुदेव. मेरा
इसमें कोई दोस नहीं हैं. उस लड़के ने मुझे बहका दिया था. लेकिन आपसे मैं वादा करता हूँ. कि आज के बाद मैं ऐसा कभी दोबारा नहीं करूँगा.
मुझे माफ़ कर दो गुरुदेव.
गुरु ने शिष्य से कहा. कि कोई बात नहीं. पर इस बात का तुम ध्यान रखना. कि हम जैसी संगति करते हैं. वैसा ही फल हमें
प्राप्त होता है. हम जैसी संगति करते हैं.
उसके विचार हमारे अंदर प्रवेश करते हैं. इसीलिए अच्छी संगति करो. जिससे तुम्हारे अंदर अच्छे विचारों का प्रवेश हो.
फिर गुरु की ओर से इसे आश्रम लौट आए. और शिष्य फिर से आश्रम के कार्यों पर ध्यान देने लगा. उसने उस रास्ते को छोड़ दिया. और दूसरे रास्ते से जाने लगा.
वो अपने काम को ध्यान
से करता. लेकिन धीरे धीरे उसके अंदर क्रोध
उत्पन्न हो गया. और फिर वो दूसरे पर क्रोध
करने लगा. वो बेचैन रहने लग गया. अब वो सही समय पर भोजन भी नहीं करता था. वो भोजन भी बौद्ध कम खाता था. एक रात गुरु उस शिष्य के पास आए. और उसे बोले कि अब तक तुमने कितनी बार अपना वादा
तोड़ दिया. यह सुनकर शिष्य अपने गुरु के
चरणों में गिर गया. और रोने लगा. रोते रोते ही उसने गुरु से कहा कि गुरुदेव. मैं कई बार अपना वादा तोड़ चुका हूँ.
फिर वादा कर लेता हूँ. लेकिन हर बार मैं वादा तोड़ देता हूँ. मेरा मन मेरे नियंत्रण में है ही नहीं. मैं बौद्ध कोशीश करता हूँ. कि मैं अपने मन से सारे बुरे विचारों को निकाल
दूँ. लेकिन मैं चाहकर भी ऐसा नहीं कर पा
रहा हूँ. फिर गुरु ने शिष्य से को कहा. कि चलो मेरे साथ गुरु. शिष्य को आश्रम के बगीचे में लेकर गए. और शिष्य से कहा कि देखो यहाँ पर कुछ नालियां
बनी हुई है. जिससे नदी का पानी इन पौधों
तक आ रहा है. और यह पानी एक निरंतर भाव से
आ रहा है.
क्या तुम इस पानी के
बहाव को रोक सकते हो. शिष्य ने कहा कि. हाँ गुरुदेव मैं इस बहाव को रोक सकता हूँ. फिर शिष्य ने मिट्टी उठाकर उस नाली में डाल दी. वो पानी थोड़ी देर के लिए रुक गया. और फिर थोड़ी देर बाद उस रेत के ऊपर से पानी आ
गया. गुरु ने शिष्य से कहा. अरे ये क्या ये तो पानी रुका ही नहीं. फिर शिष्य ने कुछ कंकड़ पत्थर उठाकर उस नाली में डाल दिए. और फिर थोड़ी देर के लिए पानी रुक गया. लेकिन फिर थोड़ी देर बाद ही उन कंकड़ पत्थर के ऊपर
से पानी निकल आया.
फिर गुरु ने कहा. शिष्य ये क्या हुआ पानी तो फिर से आ गया. तुम तो बोल रहे थे. कि तुम इसे रोक दोगे. क्या हम किसी काम को रोकना चाहे तो. क्या हम उसे रोक नहीं सकते. तब शिष्य ने कहा कोई बात नहीं गुरुदेव. मैं इस पानी को तो आपको रोक के दिखाऊंगा. फिर वो शिष्य एक बड़ा सा पत्थर लेकर आया. और उस नाली पर डाल दिया. और पानी रुक गया. फिर शिष्य ने गुरु से कहा. कि देखा गुरुदेव मैंने कहा था ना. की पानी को मैं रोक दूंगा. मैंने पानी को रोक दिखाया आपकी बात मैंने पूरी
कर दी.
गुरु मुस्कुराए और बोले
अच्छा ज़रा ध्यान से देखो. पानी रुक गया
क्या वो तो पीछे की नाली तोड़कर बाहर आ गया. और अगल बगल से बह रहा है. और ध्यान से देखो. तो इस पत्थर के आगे भी आ गया. और यह पानी अपना रास्ता बदल कर. फिर से आगे की तरफ बह जाएगा. और फिर थोड़ी देर बाद से ही हुआ. फिर गुरु ने शिष्य को समझाया कि तुम्हारे साथ भी
तो ऐसा ही चल रहा है. तुम बार बार प्रयास
कर रहे हो. बड़े से बड़ा प्रयास कर रहे हो
पर हर बार तुम्हारा प्रयास टूट रहा है. और
ये हमेशा टूटता ही रहेगा.
तुम कितना भी बड़ा पत्थर
रख लो. लेकिन पानी तो अपना रास्ता बना ही
लेगा. ये सब देखकर निराश हो गया. फिर शिष्य गुरु से कहा. कि हे गुरुदेव क्या कोई तरीका नहीं है. जिससे मैं इन गंदे विचारों से बाहर निकल सकू. और ये मेरे मन में आया ही नहीं. गुरूजी से कोई एक नदी के पास ले गए. जहाँ से उस बगीचे में पानी आ रहा था. गुरु ने शिष्य से कहा. वो पानी इसी नदी से जा रहा है. अगर हम यही से उस रास्ते को बंद कर दें. जहाँ से पानी बगीचे में जा रहा है. तब क्या हम पानी को रोक नहीं सकते.
शिष्य ने कहा कि हाँ
गुरुदेव. अवस्य ऐसा हो सकता है. मैं इस पानी को यहीं से बंद कर देता हूँ. तब आगे की नाली में पानी जाएगा ही नहीं. और फिर बगीचे में पानी जाएगा ही नहीं. फिर शिष्य ने नदी से जाने वाले रास्ते को. बौद्ध मेहनत करके पत्थर और मिट्टी डाल डालकर बंद कर
दिया. और गुरु से कहा. कि गुरुदेव मैंने पानी को बंद कर दिया है. अब यह पानी बगीचे में जायेगा ही नहीं. तब गुरु ने कहा किसी से अगर पानी बगीचे में नहीं
जाएगा. तो पेड़ पौधों को पानी कहाँ से
मिलेगा.
उन पेड़ पौधों को तो
पानी की आवश्यकता है. और उन पेड़ पौधों में
कुछ पेड़ पौधे तो ऐसे हैं. जिनको रोज़ पानी
की आवश्यकता है. वो तो मुरझाकर मर ही
जाएंगे. उनका क्या होगा पानी तो हमें
खोलना ही होगा. शिष्य ने गुरु की बात सुनकर वापस नदी से जाने वाले
पानी का रास्ता खोल दिया. तब गुरु ने
शिष्य से पूछा. शिष्य अगर हम इस नदी के पूरे पानी को बगीचे के तरफ मोड़
दे. तो क्या होगा. तब शिष्य ने जवाब दिया. कि गुरुदेव वहाँ पर जीतने भी पेड़ पौधे हैं.
वो गलकर नष्ट हो जाएंगे.
वहाँ पर कुछ नहीं बचेगा. फिर गुरु मुस्कुराए और बोले तुम इस बात को समझो.
कि हमें किसी भी चीज़ को रोकना नहीं है.
बस हमें हमेशा संतुलन
बनाए रखना है. कम पानी से भी पौधे नष्ट
होते हैं. और ज्यादा पानी से भी पौधे नष्ट
होते हैं. हमारा जीवन संतुलन से ही चलता
है. गुरु ने शिष्य से कहा कि अगर मैं
तुम्हें कुछ कहूँ. कि तुम आम के बारे में
मत सोचो. तो तुम्हारे मन में सबसे पहले
किसका चित्र आएगा. शिष्य ने कहा कि गुरुदेव मेरे मन में तो पहला चित्र आम
का ही आएगा. गुरु ने कहा कि जब हम गंदे
विचारों को जबरदस्ती रोकने का प्रयास करते हैं. तो वो और मजबूती के साथ हमारे अंदर प्रवेश करते
हैं.
हमारे अंदर उठते हैं. इसीलिए हमें उन्हें कभी भी दबाने की कोशीश नहीं
करनी चाहिए. फिर गुरु ने शिष्य को समझाते
हुए कहा. कि हमारे गंदे विचार बुरे लोगों
की संगति करने की वजह से भी आते है. कई बार क्या होता है. की कामुकता हमारे अंदर होती नहीं है. लेकिन कुछ असलील लोगों के साथ रहने की वजह से. ये हमारे अंदर हावी हो जाती है. शिष्य ने कहा. कि गुरुदेव आप से ही कह रहे हैं. मैं अपने मार्ग
से भटक गया था. फिर वो शिष्य उस रात बौद्ध ही चैन की नींद सोया. सुबह अपने कार्यों को पूरे मन से किया.
और फिर सुबह वो भिक्षा
लेने के लिए उसी रास्ते से गया. जहाँ वो
लड़का आज भी पेड़ के पीछे छिपकर. उन लड़कियों
को देख रहा था. वो उसी से उस नदी पर गया. जहाँ वह लड़कियां पानी भर रही थी. उसने उन लड़कियों से पानी मांगा. उन लड़कियों में से एक लड़की ने उसे पानी पिलाया. और उस संन्यासी शिष्य के चरण छुए. शिष्य ने उसे आशीर्वाद दिया. कि तुम्हारा कल्याण हो. शिष्य से कम मन सकारात्मक ऊर्जा से भर गया. उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई थी. जैसे कि उसे कुछ खोया हुआ.
वापस मिल गया हो. वो वापस अपने रास्ते से जाने लगा. तभी पीछे से वो लड़का आ गया. जो पेड़ के पीछे छुपा हुआ था. वो शिष्य के पास आया. और बोला कि क्या बात है. आज तो तुमने नजदीक से दर्शन कर लिए. तुम तो मुझसे भी आगे निकले. तब शिष्य ने कहा कि. हम हमेशा दूसरे के दर्शन करने में ही व्यस्त
रहते हैं. अपने दर्शन कर ही नहीं पाते. तुम कब तक इस पेड़ के पीछे छुपते रहोगे. किसी को पसंद कर लो. उससे बोल दो. अगर वो भी तुम्हें पसंद करती है. तो शादी कर लो.
और उससे पहले तुम कुछ
बन जाओ. अपने आप को पहचान लो. ऐसे अपना समय बर्बाद मत करो. फिर वो लड़का रोज़ उससे मिलने लगा. और उस लड़के ने नदी पर जाना छोड़ दिया. और फिर वो लड़का अपने जीवन में कुछ बनने के लिए
संघर्ष करने लगा. तो तुमने देखा संगति का
असर क्या होता है. अपनी संगति बदलो. अपने विचार बदलो. बुद्ध ने युवक से पूछा कि क्या तुम्हें. तुम्हारे सारे सवालों का जवाब मिल गया. तब युवक ने कहा कि हाँ महात्मा जी आपका बौद्ध बौद्ध धन्यवाद. तब गौतम बुद्ध ने युवक से कहा.
मैं जब तुम्हारे मन में
गंदे विचार आये. तब आप अपने आपको दोषी मत
मानो. ये शरीर है. और ये सब इसने हजारों वर्षों से सीखा है. एक केवल तुम्हारे सोच लेने से शपथ लेने से ये
टूटने वाला है नहीं. लेकिन तुम्हारे पास
हो सकती है. वो ऊर्जा है जिसका तुम्हें
संतुलन उपयोग करना है. तुम एक जीवित ऊर्जा
हो. जो कुछ भी अनुभव करने के लिए स्वतंत्र
है. जो निर्माण करने के लिए स्वतंत्र हैं.
इसीलिए तुम अपने आपको पहचानों. ये बोलकर गौतम बुद्ध मौन हो गए. और वो युवक वहां से चला गया.
इस वीडियो को देखने के
बाद आप जानेगे की आलस्य क्या है. यह क्यों
पैदा होता है. इसे कैसे खत्म किया जा सकता है. तो आइये इसे समझते हैं. एक कहानी के माध्यम से. एक
बार की बात है. एक आलसी व्यक्ति एक बौद्ध भिक्षुक
से कहता है. मुनिवर. मेरे पास बहुत आलसपन
है. जिसकी वजह से मैं अपने जीवन में जो
करना चाहता हूँ. वो कर नहीं पाता हूँ. मुझे कुछ रास्ता दिखाएं. तो बौद्ध भिक्षुक उस
आदमी से पूछते हैं. क्या तुम्हें पक्का
विश्वास है. कि तुम्हें आलसपन है. वह व्यक्ति कहता है. जी मुनिवर. केवल मैं ही नहीं मेरे पूरे गांव के
लोग कहते है. की मैं आलसी हूँ. वे बौद्ध भिक्षुक
उस व्यक्ति से कहते हैं. परन्तु क्या
तुम्हारे पास इस बात का कोई प्रमाण है. कि
तुम वाकई आलसी हो. वो व्यक्ति कहता है. जी
मुनिवर.
तो बौद्ध भिक्षुक कहते हैं. क्या प्रमाण है. मुनिवर. मैं जानता तो हूँ. कि व्यायाम करना मेरे स्वास्थ्य के लिए अच्छा तो
है. लेकिन मैं चाहकर भी नहीं कर पाता हूँ.
क्योंकि मेरा आलस मुझे सुबह जल्दी उठने ही
नहीं देता. वे बौद्ध भिक्षुक कहते है. अच्छा तुम ऐसी आलस से परेशान हो. व्यक्ति कहता है. जी मुनिवर. बौद्ध भिक्षुक कहते है. परंतु क्या तुम जानते हो की आलस होता क्या है.
वह व्यक्ति कहता है. मैं ये तो नहीं जानता. कि आलस का अर्थ क्या है. परंतु ये जो भी है. बहुत बुरा है. वे बौद्ध कहते हैं. कि सबसे पहले तो तुम ये समझो. कि जो भी चीज़ प्राकृतिक रूप से मनुष्य के भीतर
है. उसका कोई ना कोई उपयोग है. वो बुरी या
अच्छी नहीं है. आलस्य एक भाव है. एक विचार है. जिससे जाने अनजाने में हम खुद ही पैदा करते हैं.
वो व्यक्ति पूछता है. परंतु वे कैसे मुनिवर. वे बौद्ध भिक्षुक कहते हैं. आल्शय पैदा होने के दो कारण हैं. पहला शारीरिक और दूसरा मानसिक. जब हम शरीर को कोई ऐसे भोजन देते हैं. जिसमें खुद के भीतर कोई जीवंतता नहीं है.
तब हमारे शरीर के भीतर
आलस्य पैदा होता है. क्योंकि यह शरीर
ऊर्जा से चलता है. और जीस तरह का ऊर्जा हम
उसे देते हैं. या उसी तरह का बर्ताव करता
है. शरीर के भीतर हमारे अंदर आल्शय का दूसरा कारण है. गलत तरह से बैठना. गलत तरह से सोना और गलत तरह से चलना. हम इस बात पर कभी ध्यान नहीं देते. की हमारे बैठने,
लेटने और सोने की स्थिती सही भी है या नहीं. अगर तुम तथागत बुद्ध को देखो गे. तब तुम पाओगे
कि जब वो बैठते हैं. तो उनके रीड की हड्डी
बिल्कुल सीधी होती है. जब वे सोते हैं. तो
उनके शरीर के भीतर किसी भी अंग में कोई दबाव नहीं होता. और जब वो चलते हैं. तो उनके दोनों कदमों के बीच एक तालमेल नजर आता
है. ये ज़रूरी नहीं है. की कोई बुद्ध को सुनकर ही समझे. अगर कोई समझना चाहता है. तो सिर्फ उन्हें ध्यान से देखकर भी बहुत कुछ समझा जा सकता है. शारीरिक स्तर पर आलस्य का तीसरा कारण है. सुबह जल्दी ना उठना. यह सुनकर वह व्यक्ति कहता है. हां मुनिवर. मैं सुबह जल्दी उठ नहीं पाता, वे बौद्ध भिक्षुक मुस्कुराते हैं. और
कहते हैं. तुम सुबह जल्दी तभी उठ सकते हो.
जब तुम रात को सोने का एक सही समय
निर्धारित कर लोगे. प्रत्येक बौद्ध भिक्षु
को अनुशासन का पालन करना होता है. क्योंकि
अनुशासन हमारे जीवन में संतुलन लाता है. ज्यादातर
लोग अनुशासन को बुरा समझते हैं. क्योंकि
उन्हें लगता है. की अनुशासन उन्हें बांधता है. जबकि असल में ये है. की अनुशासन हमें बांधता नहीं. बल्कि मुक्त करता है. तब वो व्यक्ति पूछता है. परंतु मुनिवर. शुरुआत कहाँ से करें. सही तरह से भोजन करने से सही तरह से बैठने,
लेटने या चलने से. या सुबह
जल्दी उठने से वो. बौद्ध भिक्षुक कहते हैं. शुरुआत अभी से करो. जो भी तुम इस समय कर रहे हो.
उसे ध्यान से करो, पहले
तुम मन के स्तर पर आलस्य को समझो. वैसे ज्यादातर स्थितियों में मन शरीर के कारण ये
आलस्य पैदा करता है.
मानसिक आलस्य का पहला
कारण है. हमारे पुराने गलत विश्वास. हमें
लगता है, की हम पिछली बार भी नहीं कर पाए
थे. इसलिए इस बार भी हमसे नहीं होगा. हम इस बात को नहीं देखते हैं. कि इस बार और पिछली बार में बहुत अंतर है. अब हम मानसिक तौर पर वो नहीं हैं. जो पहले थे. अब सब कुछ बदल चुका है. जब हम अपने आप को काबिल नहीं समझते. तब आलस हम पर हावी हो जाता है. दूसरा कारण है, छोटी
लोग वाले और आलसी लोगों का साथ देना. कभी कभी ऐसा होता है. की आलस से हमारे भीतर नहीं होता. परन्तु दूसरो लोगो से वो हमारे भीतर आ जाता है.
ऐसा इसलिए होता है. क्योंकि हम आलसी लोगों की संगति करते हैं. वह
व्यक्ति कहता है, कि जी मुनिवर. यह एकदम सत्य है. यह बात तो मैंने भी अनुभव की है.
वे बौद्ध भिक्षुक कहते हैं. तीसरा कारण है. मन का स्पष्ट ना हो ना. मानलो तुम एक वन में खो
गए हो. और शाम होने वाली है. तुम्हे ये नहीं पता की तुम्हारा घर किस दिशा में
है. तो क्या ऐसी स्थिती में तुम आलसी बनकर
लेट जाओगे. या फिर अपने घर की तलाश में निकल पड़ोगे. वो व्यक्ति कहता है. कि मैं घर की तलाश में निकल पड़ूंगा. तब वो बौद्ध
भिक्षुक कहता है. कि अगर खूब प्रयास करने
के बाद भी. तुम्हें तुम्हारे घर का रास्ता
नहीं मिला. तब तुम क्या करोगे.
वो व्यक्ति कहता है, मैं फिर भी तलाश में लगा रहूंगा. क्योंकि मेरे पास उसके अलावा और कोई विकल्प ही
नहीं होगा. वो बौद्ध भिक्षु कहते हैं.
मनुष्य को आलस तभी पकड़ता है. जब उसके पास कई विकल्प होते हैं. अगर किसी के पास सिर्फ एक ही विकल्प है. तो उसका मन पूरी तरह से स्पष्ट होगा. अगर तुम अभी व्यायाम नहीं कर पा रहे हो. तो उसका कारण तुम्हारे नज़र का स्पष्ट नहीं होना
है. तुम अभी भविष्य में होने वाले रोगों
को नहीं देख पा रहे हो. तुम अभी उन रोगों
से होने वाली पीड़ा को महसूस नहीं कर पा रहे हो.
वो बौद्ध भिक्षु आगे कहते हैं. कि आलस्य का चौथा मानसिक कारण है. किसी काम को करने की कोई वजह ना हो ना. मानलो
तुम एक रास्ते से कहीं जा रहे हो. और बहुत देर तक चलते चलते तुम कहीं थक जाते हो. अब तुम्हारा और चलने का मन नहीं कर रहा है. तुम्हें आलस्य आ रहा है.
तभी तुम वहाँ देखते हो, की एक सेर तुम्हारे पीछे चला आ रहा है. तो क्या ऐसी परिस्थिति में भी तुम अपने आलस्य को
लेकर. वहाँ रुके रहोगे. नहीं ना. तो इस
बात को समझो आलस तुम्हें उसी काम को करने से रोकता है. जिसे करने की कोई बड़ी वजह ना हो. वो व्यक्ति
कहता है. धन्यवाद मुनिवर. अब मुझे आलस्य
का सारा खेल समझ में आ गया. वो बौद्ध भिक्षु कहते हैं, मेरी एक बात हमेशा याद रखना. जहाँ अस्पष्टता है. या कुछ करने की बड़ी वजह है. वहाँ आलस्य हो ही नहीं सकता.
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है नेक्स्ट विडियो में. धन्यवाद.
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